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Olympics: जब बिना गोल्ड मेडल के हुए थे ओलिंपिक गेम्स, बांटे गए सिर्फ सिल्वर और ब्रॉन्ज मेडल, 8 सालों बाद बदला सबकुछ
Olympics: पहले के ओलिंपिक खेलों में गोल्ड मेडल नहीं दिए जाते थे. इसके पीछे महंगा सोना कारण था. ऐसे में 8 साल बाद जाकर पहले पायदान पर रहने वाले खिलाड़ी को गोल्ड मेडल दिया गया.
हर खिलाड़ी का सपना होता है कि वो ओलिंपिक खेलों में मेडल जीतकर अपने देश का नाम रोशन करे. खिलाड़ी पोडियम पर खड़े होकर गले में स्वर्ण पदक वाले लम्हें को जीने के लिए दिन-रात एक कर देते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक ओलिंपिक ऐसा भी खेला गया था जहां पहला स्थान पाने वाले खिलाड़ियों को गोल्ड मेडल नहीं दिया गया था. इस ओलिंपिक गेम्स में पहले स्थान वाले खिलाड़ी को सिल्वर और दूसरे स्थान वाले खिलाड़ी को ब्रॉन्ज मेडल मिला था. जबकि तीसरे नंबर पर रहने वाले खिलाड़ी को कुछ नहीं मिला था. ये ऐसी बात है जिसपर यकीन करना बेहद मुश्किल है. लेकिन ऐसा हो चुका है और ये हमेशा के लिए इतिहास में कैद हो चुका है. हालांकि पहले स्थान वाले खिलाड़ी को गोल्ड मेडल देने में करीब 8 साल का वक्त लग गया.
बैन के बाद शुरू हुए थे ओलिंपिक गेम्स
बता दें कि करीब 1500 साल पहले रोमन किंग थियोडोसियस ने आलिंपिक खेलों पर बैन लगा दिया था, जिसे 1896 में एथेंस में फिर से शुरू किया गया था. दोबारा शुरू हुए ओलिंपिक खेलों में विजेताओं को पदक देने की परंपरा अपनाई गई. हालांकि, 1896 में ओलिंपिक खेलों में सिर्फ पहले और दूसरे स्थान पर रहने वाले खिलाड़ियों को पदक दिए गए थे. विजेता को रजत पदक और उपविजेता को कांस्य पदक मिलता था. तीसरे स्थान पर रहे खिलाड़ी को खाली हाथ लौटना पड़ा था. पदक के आगे कि हिस्से पर देवताओं के पिता ज्यूस की तस्वीर हुआ करती थी, तो पिछले हिस्से में एक्रोपोलिस की तस्वीर बनी थी.
क्यों नहीं मिलता था गोल्ड मेडल
दरअसल, पहले ओलंपिक खेलों में गोल्ड मेडल नहीं दिए जाने के पीछे की वजह महंगाई थी. एथेंस में उस समय सोना काफी महंगा था इसलिए गोल्ड मेडल नहीं दिया गया था. यही, वजह थी कि जब अमेरिका के एथलीट जेम्स कोनोली आधुनिक ओलंपिक खेलों के पहले चैंपियन बने, तो उन्हें सिल्वर मेडल से संतुष्ट होना पड़ा था.
1904 में शुरू हुई गोल्ड मेडल की प्रथा
आज जिस ‘3 मेडल फॉर्मेट’ को हम पहचानते हैं, उसकी शुरूआत 1904 के सेंट लुइस ओलिंपिक खेलों से हुई, जब विजेताओं को पहली बार गोल्ड मेडल से नवाजा गया. इसके बाद से आज तक के सभी ओलंपिक खेलों में यही प्रथा चली आ रही है. इसके अलावा 1948 ओलिंपिक खेलों से चौथे, पांचवें और छठे स्थान पर रहने वाले खिलाड़ियों को भी डिप्लोमा दिया जाने लगा. आगे चलकर 1984 में सातवें और आठवें स्थान पर रहे खिलाड़ियों को डिप्लोमा देने की शुरूआत की गई.
‘चांदी’ वाला गोल्ड मेडल
अगर आपको लगता है कि जो गोल्ड मेडल खिलाड़ियों को मिलता है, वो पूरी तरह सोने से बना होता है, तो आप गलत हैं. दरअसल, 1912 के स्टॉकहोम खेलों में आखिरी बार ‘गोल्ड मेडल’ पूरी तरह से सोने से बनाए गए थे. उसके बाद से ही स्वर्ण पदकों पर सोने की सिर्फ परत चढ़ाई जाती है. दरअसल, अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति के दिशा-निर्देशों के अनुसार, गोल्ड मेडल में कम से कम 6 ग्राम सोना होना चाहिए. 1912 के बाद से गोल्ड मेडल मे चांदी का भारी मात्रा में इस्तेमाल किया जाने लगा.
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