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मेजर ध्यानचंद, ऐसा जादूगर खिलाड़ी जिन्होंने हॉकी को बनाया भारत की आंखों का तारा

मेजर ध्यानचंद अपने अन्तिम समय में भारतीय टीम की दुर्दशा देखकर बहुत दुखी होते थे. उनका मानना था कि ट्रेनिंग के सख्त न होने व खिलाड़ियों में जुझारूपन की कमी के कारण बुरा हाल हुआ है.

मेजर ध्यानचंद जब बॉल लेकर आगे बढ़ते तो उन्हें रोकना नामुमकिन सा होता.
authorSportsTak
Thu, 29 Aug 09:32 AM

-हरीश यादव

 

मेजर ध्यानचंद, हॉकी का एक ऐसा खिलाड़ी जो अपने खेल के चलते जादूगर कहा जाता है. आज उनकी जयंती है. उनका जन्म 29 अगस्त 1905 को इलाहाबाद में हुआ था. उनके पिता सोमेश्वर सिंह फौज से सूबेदार पद से सेवानिवृत्त हुए थे. हाईस्कूल पास करने के बाद सन 1922 में ध्यानचंद 17 साल की आयु में सेना में भर्ती हुए. हॉकी के जादूगर बनने से पहले वे दद्दा के नाम से मशहूर हुए और आज भी उनके लिए सम्मान से यह उद्बोधन इस्तेमाल होता है. ध्यानचंद और उनसे आठ साल छोटे रूप सिंह दोनों ने हॉकी में बहुत नाम कमाया. ध्यानचंद ने हॉकी सेना में आने के बाद ही सीखी. यह सब हुआ सीनियर सूबेदार मेजर तिवारी के कहने पर.

 

दद्दा जब मैदान पर होते थे तो गेंद पर उनका पूर्ण नियंत्रण होता था. उनके बेटे और हॉकी के माहिर खिलाड़ी रहे अशोक कुमार बताते हैं कि हॉकी की हर कला जैसे ड्रिबलिंग, पास लेना-देना, हिट, डॉज देना, विभिन्न कोनों से गोल मारने में दद्दा माहिर थे. वे तेज हिट मारने के खिलाफ थे और छोटे भाई रूप सिंह और बाकी खिलाड़ियों को भी समझाते थे कि लंबी हिट मारने की तुलना में जगह बनाकर (प्लेसिंग से) गोल करें. उनके छोटे भाई रूप सिंह, दद्दा से अक्सर डांट खाते थे क्योंकि रूप सिंह हिट शॉट ज्यादा मारा करते थे.

 

ध्यानचंद की हॉकी से चिपक जाती गेंद

 

ध्यानचंद जब खेलते थे तो गेंद उनकी हॉकी स्टिक से चिपकी रहती थी. लोगों को ऐसा लगता मानो चुंबक या गोंद की वजह से ऐसा हो रहा है. कई बार उनकी हॉकी की जांच हुई. लेकिन हर बार साजिशों के दांव महज अफवाह बनकर रह गए. 1928 एम्स्टर्डम ओलिंपिक के फाइनल में उन्होंने 2 गोल मारकर भारत को गोल्ड दिलाया. पूरे टूर्नामेंट में भारतीय टीम अजेय रही. ध्यानचंद ने पांच मैचों में 14 गोल किए. इस ओलिंपिक के दौरान भारतीय टीम ने कुल 29 गोल मारे जबकि विरोधी टीम खाता तक नहीं खोल सकी.

 

1932 ओलिंपिक में भाई के साथ मिलकर किया कमाल

 

1932 लॉस एंजेलिस में भी उनके बेहतरीन खेल से भारत ने स्वर्ण पदक जीता. उनके छोटे भाई रूप सिंह भी इस टीम में शामिल थे. जापान को 11-1 और संयुक्त अमेरिका को 24-1 से हराकर अपने दोनों मैच जीते. अमेरिका के खिलाफ 24-1 की जीत अभी भी ओलिंपिक इतिहास में सबसे बड़े अंतर की जीत है. इस मैच में ध्यानचंद ने आठ गोल किए और रूप सिंह ने 10 गोल कर एक हॉकी मैच में सबसे अधिक गोल करने का रिकॉर्ड बनाया. दोनों भाइयों ने उस ओलिंपिक में भारत के कुल 35 गोलों में से 25 गोल किए.

 

हिटलर के सामने जर्मनी को हराया

 

1936 बर्लिन ओलंपिक में ध्यानचंद कप्तान रहे. टीम एक बार पूरे ओलिंपिक में अजेय थी. फाइनल मैच में हाफ टाइम के बाद ज्यादा तेज खेलने के लिए ध्यानचंद नंगे पैर खेले. 15 अगस्त को खेले गए मैच में एक बार फिर भारतीय तिरंगे की लाज रखते हुए उनके नेतृत्व में खिलाड़ियों ने बेहतरीन खेल खेला और जर्मनी को 8–1 से मात देकर हिटलर जैसे तानाशाह का भी दिल जीत लिया. हिटलर फाइनल देखने के लिए मौजूद था. ध्यानचंद के खेल को देखने के बाद उन्हें जर्मनी से खेलने और बड़ा पद देने की पेशकश हुई जिसे ध्यानचंद ने विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया.

 

महान क्रिकेटर डॉन ब्रैडमैन भी उनके हॉकी खेल के दीवाने थे. ब्रैडमैन से उनकी मुलाकात एडिलेड में हुई. ध्यानचंद के बारे में उनका कहना था कि उन्हें हॉकी खेलते और गोल मारते हुए देख ऐसा लगता है जैसे वे हॉकी नहीं क्रिकेट के रन बना रहे है. ध्यानचंद सादगीपूर्ण और सिद्धांतवादी व्यक्तित्व के धनी थे. उन्होंने सरकार से कभी कुछ न चाहा. परिवार के सदस्यों के अनुसार उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रही पर वे किसी को कुछ नही कहते थे. ओलिंपियन अशोक कुमार के अनुसार,  “सन 1964 के आस पास बाबूजी ध्यानचंद को प्रतिमाह 400 रुपए पेंशन मिलती थी और उसमें एक बड़े संयुक्त परिवार का खर्चा मुश्किल से चलता था. दादी और ताऊजी भी साथ में रहते थे. मुझे तो उस समय 25 पैसे प्रतिमाह जेब खर्च मिलता था.''

 

ध्यानचंद के सात बेटे थे और दद्दा ने किसी को भी खुद हॉकी नहीं सिखाई. उनकी इच्छा थी कि उनके बच्चे अच्छा पढ़ लिखकर बड़े प्रशासनिक पदों पर काम करे. दद्दा ने कभी भी किसी सेलेक्शन में हस्तक्षेप नहीं किया. उनके परिवार ने कई अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी दिए हैं. भाई रूप सिंह और बेटे अशोक कुमार के अलावा उनके तीन और बेटों ने देश का प्रतिनिधित्व किया. इनके अलावा कुछ साल पूर्व उनकी नातिन नेहा सिंह ने भी अंतरास्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व किया.

 

भारतीय टीम की दुर्दशा देखकर होते थे दुखी

 

अशोक कुमार के अनुसार जब वे विदेश जाते तो अपने पिता की प्रसिद्धि देखकर दंग रह जाते. आज भी कई देशों जैसे हॉलैण्ड, जर्मनी, न्यूज़ीलैण्ड, अमेरिका में दद्दा को फोटो/मूर्तिया लगी  हुई है. कहा जाता है कि खिलाड़ियों में पूरे विश्व में सबसे ज्यादा मूर्तियां ध्यानचंद की ही लगी हैं. उनके खेल से संबंधित समाचार पत्रों को कटिंग विदेशों में आज भी कई लोग सुरक्षित रखे हुए है. पाकिस्तान में भी उनके हजारों चाहने वाले हैं. दद्दा झांसी के हीरोज क्लब के संस्थापकों में से एक थे. वृद्धावस्था में भी वे छड़ी और छाता लेकर क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल के मैच देखने जाते थे. उनके बेटे गोविंद और राजकुमार के अनुसार दद्दा अपने अन्तिम समय में भारतीय टीम की दुर्दशा देखकर बहुत दुखी होते थे. उनका मानना था कि ट्रेनिंग के सख्त न होने व खिलाड़ियों में जुझारूपन की कमी के कारण बुरा हाल हुआ है.

 

दद्दा के समकालीनों की खेल भावना


1936 बर्लिन ओलिंपिक के पहले सेना की ओर से समय से न छोड़े जाने के कारण ध्यानचंद कोचिंग कैंप देर से पहुंच सके. इस बीच जाफर साहब को भारतीय टीम का कप्तान नियुक्त कर दिया गया. लेकिन वे ध्यानचंद के खेल से बहुत ज्यादा प्रभावित थे और उनकी बहुत इज्जत करते थे. जाफर साहब के अनुरोध पर ध्यानचंद को ही भारतीय टीम का कप्तान बनाया गया. उस समय गोलकीपर सुरक्षा के लिए सिर्फ पैड पहना करते थे. दद्दा ये भी ध्यान रखते थे कि विपक्षी गोलकीपर उनकी हिट से चोट न खा जाए.

 

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